आजतक सत्ता और समाज कि परिभाषा मेरे लिए कुछ और थी। पर हर रोज़ के गिरते भाषा के स्तर ने मेरे सत्ता के मायने बदलकर रख दिए है। पहले तक सत्ता को एक ऐसी शक्ति माना जाता था जिसके दम पर हम देश को आगे बढ़ाने , उसमे बदलाव लाने और दुनिया के सामने एक सशक्त देश का उदाहरण बनने में सक्षम होते थे और सत्ताधारियों को उसका ज़रिया मानते थे। पर हर रोज़ सुर्खियाँ बटोरते ये सत्ताधारी - एक दूसरे पर तानाकशी, घटिया इल्ज़ामात और एक दूसरे को पागल करार देते पाये जाते है।
हर रोज़ शर्मसार होती इस सत्ता का गवाह बनते है-ये अख़बार ,मैं और आप।समाज को सुधारना तो दूर ये लोग, जो एक दूसरे पर ऐसी छींटाकशी करते है कि वो इंसानियत बरतने के काबिल भी नहीं है। 2014 के मतदान जैसे-जैसे पास आ रहे हैं इन लोगों कि एक दूसरे पर शब्दों कि गोलेबारी तेज़ हो गयी है - वो भी "ज़हरीली" गोलेबारी।
मैं कभी कभी सोचती हूँ कि क्या ये है इन्सानियत का स्तर कि एक दूसरे को समाज के बीच बाज़ार में ,हर रोज़ नंगा कर दिया जाये ?क्या ये लोगों में से ,जो अपना दिमागी संतुलन खो चुके है, मुझे एक चुनकर अपने आप को ,अपने देश को और अपनी आने वाली पीढ़ी को चलने कि ज़िम्मेदारी देनी है,जिन लोगो ने सत्ता को पैसा,शक्ति, अमानवीय और अस्वीकारणीय बर्ताव का बाज़ार बना दिया है?यहाँ हर रोज़ एक इंसान दूसरे को पागल करार देने,आईएम से मिले होने कि डिग्री प्रदान करता है। इस बात का क्या प्रमाण है कि जिसे मैं वोट दूंगी या ये देश जिसे चुनेगा वो (शक्ति ) हारी हुई (सिर्फ शक्ति हारी हुई,इंसानियत को बदनाम करने में तो वो भी अव्वल दर्जे से पास हुई है ) पार्टी से एक प्रतिशत भी बेहतर है ?
अपने समाज और अपने देख कि कल कि छवि सोचकर मन दुःख और चिंता से भर जाता है और शब्दों कि आवाजाही वहीं ठप हो जाती है।
चार पंक्तियों में मैंने इसे संपन्न करती हूँ :
भटक गया है समाज,
इसके सुधरने कि उम्मीद नहीं ,हर रोज़ कि इस तानाकशी से,
आने वाले कल में कुछ अच्छा प्रतीत नहीं,
चिंता है और चिंतन भी,
पर इन सबका लाभ नहीं ,
क्योकि समाज बदल रहा है इस कदर,
जहाँ भाई भाई के करीब नहीं।
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