ये कुछ पंक्तियाँ हैं उन अधूरी कविताओं के नाम जिन्हें मैं कभी पूरी नहीं कर पायी और वो कागज़ कहाँ गए, पता नहीं.
कुछ अधूरी कहानियाँ आज भी हैं कागजों पे,
बस यूँ हैं लिखी पड़ी,
कुछ गयी है कबाड़ में इस तरह,
जैसे कभी थी नहीं उनकी औकात कोई.
न जाने क्यूँ पूरी नहीं वो हो सकी मुझसे कभी,
शायद अधूरी रह जाना था उनकी किस्मत में,
या उन्हें पूरा करने कि,
थी नहीं औकात मेरी.
कiश उन्हें उनका कवि मिले,
जो उन्हें ऐसे शब्दों में पिरो सके,
देखकर जिसे मैं कहूँ,
अच्छा,बन नहीं पायी थीं ये मेरी तभी !
कुछ अधूरी कहानियाँ आज भी हैं कागजों पे,
बस यूँ हैं लिखी पड़ी,
कुछ गयी है कबाड़ में इस तरह,
जैसे कभी थी नहीं उनकी औकात कोई.
न जाने क्यूँ पूरी नहीं वो हो सकी मुझसे कभी,
शायद अधूरी रह जाना था उनकी किस्मत में,
या उन्हें पूरा करने कि,
थी नहीं औकात मेरी.
कiश उन्हें उनका कवि मिले,
जो उन्हें ऐसे शब्दों में पिरो सके,
देखकर जिसे मैं कहूँ,
अच्छा,बन नहीं पायी थीं ये मेरी तभी !
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